Thursday, May 26, 2016

माझे जीवनगाणे

परवा मित्रा  बरोबर  गप्पा  मारताना  सहज मी  केलेल्या  कामाचा  पाढा  वाचला  गेला.  मी  सांगत  असताना  तो  आवाक होउन  ऐकत  राहिला  म्हणून  हा  पंक्तिप्रपंच...

माझ्या  बाबतीत  म्हणाल  तर  बराच  आडवळणाचा प्रवास  करत  आजची उंची  गाठली  असेच  म्हणावे लागेल. सुरवातच  एका  अतिशय  कठीण अशा  वातावरणात  झाली  पण  फासे  असे पडत  गेले  त्याने  लढाऊ  बाणा  अंगात  पुरेपुर  मुरला. राहण्या योग्य  परिसर  नसून  स्वबळावर  हे  प्राप्त  केले. घरातील  वातावरण  जरा  वेगळे होते  तरीही  आजपर्यंतचा  प्रवास  बिनदिक्कत, बेधडकपणे  करता आला. लहानपण  कसे  सरले  ते  कळलेच  नाही... खूप  काही  करता  आले  असते  पण  वेगळ्या  वाटेवरच्या  प्रवाशाला  कोणी  वाटाड्या  मिळाला नाही... असो.
शिक्षण  बंद  करून  कामाला  लाग  असा  आदेश  असून  पुढील  शैक्षणिक  वाटचाल  चालूच  ठेवली. तो  पर्यंत  प्रेमात  पडलो  होतो. तिकडून दबाव  होताच  की  ग्रॅज्युएट  तरी  किमान व्हायला हवे..डोंगरात  भटकंती  करायचे  वेड  त्याच सुमारास  लागले. नवीन  ओळखी  होत  होत्या  पण  पुढे  काय करणार  हा  प्रश्न  आ वासून  समोर  उभा  राहत असे. दहावी  नंतर  शिक्षणासाठी घरातून एक  रूपयांची  मदत  नव्हती  तशी  आमची  शैक्षणिक  प्रगती  यतातथा होती. पण  बाकीच्या  कालाकांड्या कमी  नव्हत्या. डोंगराच्या कुशीत फिरून  एक  मात्र  झाले... शरीराचा  कस  निघाला तद्वतच  कणखर  मनाचा  पाया  पक्का झाला. आलेल्या  समस्येला तोंड देण्यासाठी  मन  तयार होत  गेले शिक्षण  चालू  असताना पैसे  ही  कमवायला  लागलो त्यामुळे  पैशाची  किंमत  काॅलेज जीवनात  कळून  चुकली आणि  धंदाच  करायचा  ह्याची  मुहूर्तमेढ  रोवली  गेली. मुंबई - पुणे  अपडाऊन करता  करता  एक  महानगर  परीचयाचे होउन  गेले  ते आजतागायत  त्या महानगराची  कधी  भीती  वाटलीच  नाही. हा  प्रवास  जितका  सोपा  वाटतो तितका  खचितच  नव्हता. अनेकदा  मानहानीचे प्रसंग  येउन  गेले  पण  आमची  मानसिकता  इतकी खतरनाक  मुशीतून  तयार  झाली  असल्याने म्हणा हवं तर पण आम्ही  ते  सहज  पचवले.
ग्रॅज्युएट  झाल्यावर  एका  सिगरेट  कंपनीत  का  कोणास ठाऊक !  मी  नोकरी  पत्करली  इथूनच  पुढील  दोन  वर्ष निरनिराळे  अनुभव घेत, गावे  फिरत काढली. घरापासून  लांब  रहायची  सवय  इथे  अंगी  बाणली गेली. आजवरचे  घरगुती  नखरे  गळून  पडायला  हीच  नोकरी  कारणीभूत ठरली. ताटात काही   समोर  आले  तरी  गपगुमान  खायचे भान  ह्या  नोकरीने दिले. कष्ट, मेहनत  ह्या  शब्दांची  खरी ओळख  इथली  बरं का....
ह्या  कालावधीत  काही काळ डोंगराची साथ  सुटली होती  पण  पुढील  आयुष्यात उपयोगी  पडेल  असा  कसदार  जीवनानुभव मिळत होता.
मोठ्या  कंपन्याचे काम  कसे  चालते  हे  इथे  शिकायला  मिळाले. पण  इथे  माझे  मन  रमेनासे
झाल्यावर  मी  या  नोकरीला  रामराम ठोकला. परत  पुढे  काय  हा  प्रश्न होताच. एखाद दोन  फुटकळ मुलाखती  नंतर  एका कागद  विकायच्या  कंपनीत  पुण्यात  काम पत्करले पण  इथेही  मला  म्हणावे  तसे  वातावरण  नसल्याने  मी  बाहेर  पडलो  अतिशय  तुटपुंज्या  पगारात  मी  काम  केलेली  ती  गंमतशीर  नोकरी  होती. इथे  काम करताना  मला  त्याच  काळात  आमच्या  मित्राच्या कंपनीत  काम  करायचा  योग  आला  डोंगरात  फिरायला  मिळणार  ह्या  एकाच  बाबीने मी  ही  नोकरी  सुरू केली. सर्वात  जास्त  काळ  काम  केलेल्या पैकी  ही  नोकरी  होती. धरसोड  करत करत  माझा  प्रवास चालू होता. मधेच  अहमदाबाद  येथून  ड्रेस  मटेरियल  आणून  विकण्याचा  पण  निष्फळ प्रयत्न  करून  झाला  कारण  सर्व  माल  खपवून  जेव्हा  पुढची  ऑर्डर  आणायची  वेळ  आली  तेव्हा  गुजरातला  भुकंपाने धक्का दिला होता. हा ही मार्ग  बंद  झाल्याने  परत  नोकरी  करणे  आलेच तरीही  निराश  न होता  आम्ही  उभयतांनी कोकणात  एक निसर्ग  शिबीर  चालवण्याचा  उद्योग  आरंभला. तो  पर्यंत  लग्न  झाले होते  हीचे स्त्रीधन बॅकेत ठेवून दोन  मित्रांना  बरोबर  घेउन काही  कर्ज  करून  ह्या  उद्योगात उडी  घेतली  होती. पण  जागा  नातेवाईकांची असल्याने  मर्यादा  येत  होत्या  आणि एक  दिवस  जागा  विक्रीचे  फर्मान  निघालेच  आमचा  दिड  वर्ष  चाललेला  प्रकल्प  बासनात  गुंडाळून  आम्ही  बाहेर  पडलो...  पुनश्च  काय  करायचे  हा  प्रश्न  होताच. मित्राकडे  काही  दिवस  काम  करून  महीन्याकाठी खूप  रक्कम  मिळत  होती  असेही  नव्हते. पण बुडत्याला  काडीचा  आधार  होता इतकेच.
इथे  मी  थोडेथोडके  नव्हे  तब्बल पाचशे  आऊटडोअर  प्रोग्राम  केले पण  माझे  अनुभव  विश्व  समृध्द  करायचा  मान  मी  ह्या  काळाला  देईन. बर्‍याच  अनावश्यक गोष्टी  आपण  घेऊन  जगत  असतो  ते  फेकून  देऊन  पुढे  जाण्यासाठीचे कसब  इथे  मला  मिळाले. दरम्यान  बंगलोर  स्थित  "आस्था फाऊंडेशन" मध्ये मानवी  स्वभाव  शास्त्राचा  एक   छोट्याश्या   प्रोग्राम  ने विचारांची  दिशा  बदलली  खूप  दिवस  निर्णय  घेण्यासाठी  दचकणारा मी  अंतर्बाह्य  बदलून गेलो. मी  ही  देखील  नोकरी  सोडण्याचा  निर्णय  घेतला पण असे  निर्णय  घेताना  त्याची  जबाबदारी  ही  तुमचीच  असते  हे  भान  कायम ठेवावे  लागते.  आता पुन्हा एकदा पुढे काय  हा प्रश्न  होताच. एक  वर्ष  मी  तसाच  फिरत  होतो  मिळेल  ते  काम  करत  होतो. आमच्या  दोघात  तिसरा  आला  होता  खर्च  तर  कमी  करून  चालणार  नव्हते. जो  कोणी  बोलेवेल जे  असेल ते  काम  करून  दिवस  जात  होते. स्वप्न  तर  खूप  मोठी  होती  पण  दूरदूर  पर्यंत काही  चमत्कारिक  घडेल  ह्याचा  मागमूस  नव्हता. कधी कधी  निराशेचे  ढग  विचारांच्या  मध्ये  गर्दी  करत.. काही चांगले  आपल्या  आयुष्यात  घडणार नाही  असा  विचार  सतत  मनाला  बोचणी  लावायचा  पण  परीस्थिती   समोर  हार  मानून  काहीच  फायदा  नव्हता. मन  काही  ना  काही कामात  गुंतलेले असेल  हेच  मी  पहायचो  ह्याच  काळात  मी  मातीतून  शिल्प  करायचा  सपाटा  लावला. माझ्या  निराश  मनावर  शलाकाने अनेकदा  फुंकर  घालून  घालमेल कमी  करण्यासाठी प्रयत्न केले.
शलाकाची मार्गक्रमणा सूरू होतीच  तिने  पण  काही  निर्णय  घेउन  नोकरी  बदलली धावपळ  फार  होत  होती  पण  इलाज  नव्हता. साधारण एक  वर्षभर  बिन नोकरीचा  मी  फिरत  होतो त्यातही मटण व  चिकन करून  कीलो वर  विकायची शक्कल लढवली आणि  शलाकाच्या सुगरण  हाताची  चव  काही  लोकांपर्यत पोचवली  पण  ह्याला  मर्यादा  होत्या  आणि  त्या  वेळीच  ओळखून  आम्ही  थांबलो.  इतके  सर्व  सुरू असताना  मला  एका  प्रतिथयश संस्थेत  नोकरी  करायची  संधी  आली  मी  पण क्षणाचाही  विलंब  न करता  तिथे  नोकरी  पकडली  ते  साल  होते  2006. मी प्रकल्प  व्यवस्थापक  ह्या  पदावर  काम  करायला  सुरुवात  केली. दोन  तीन  वर्षात  माझी  स्वप्न  एका मागोमाग  पूर्ण  होताना  मला  पहायला  मिळाली अर्थात  शलाकाच्या  मदती शिवाय  हे  सर्व  होणे  निव्वळ  अशक्य  होते. माझे  अर्धवट  राहिलेले  शिक्षण  पण मी  ह्या  कालावधीत  पूर्ण  केले  एक  स्थिरता  आली  होती. बर्‍याच  आघाड्यांवर  आलेले  अपयश  धुवून  टाकता आले  ते  फक्त  आणि फक्त  ह्या  नोकरीच्या  बळावर.
2014  पर्यंत  मी  ह्या  संस्थेत  इमाने  इतबारे  सेवा केली. हे  सर्व  होत  असताना  शलाकाच्या व्यवसायाने  देखील  वेग  पकडला  होता. माझ्यातला  पण  बिझनेस  किडा  परत  जागृत  व्हायला  लागला  होता. नोकरीत  मिळत  असलेल्या  पगारावर  पाणी  सोडून  मी  वेगळी  वाट  निवडायचा  माझा विचार  तिला  बोलून  दाखवला  पण नियमित  येणारे  उत्पन्न  सोडून  मी  अनियमित  उत्पन्न  स्त्रोताचा विचार  करत  होतो आताशा  खर्च ही खूप वाढले  असल्याने  हा  विचार सकृतदर्शनी  मुर्खपणाचा  दिसत  होता पण  माझे  मन  मानत  नव्हते  आणि  शरीर  अजून  मेहनतीला तयार  होते. खूप  विचाराअंती  मी  ती  नोकरी  2014 साली माझ्या  वाढदिवसाला  सोडली.... आयुष्यातील  एका  निर्णायक  टप्प्यावर  मी  होतो. वयाची  चाळीशी  पूर्ण  झालेली बरीच  झेंगटं मागे  असताना  मी  हा  निर्णय  घेतला  होता आप्त  स्वकीय  एका  धक्क्याला  सामोरे  जात  होते. माझे  माझ्या  पुढच्या  वाटचालीकडे डोळे लागले  होते. हीच्या  व्यवसायात  माझा  कितपत  उपयोग  होणार  हे  प्रश्न  चिन्ह  समोर  होतेच  मी  मनुष्यबळ विकासाचा  केलेला  अभ्यासक्रम  इथे  शून्य  उपयोगी  होता. पण  मी  आधीच ठरवल्या प्रमाणे  आम्ही  दुकान भाडेतत्वावर  घेऊन  चालवायचे  असे  ठरले. ही  आघाडी  संपूर्णपणे  मी  पेलायची  असा  ऊभयता निर्णय  घेउन  शोधाशोध  सुरू  केली  आणि  आम्ही  एक  दुकान ठरवले  हे  करत  असताना  आम्हाला   जोशी  काकांची  मदत  झाली त्यांनी  दाखवलेल्या  मार्गदर्शनाचा  लाभ  झाला  इतकी  वर्षे  न झालेल्या  परीसाचा स्पर्श  मला  झाला  त्यांच्या  ओळखीने  आम्हाला  एका  उत्पादनाची   पुणे  शहराची   विक्री  साखळी  तयार  करण्याची  संधी  मिळाली. अर्थात  त्यासाठीचे  प्रशिक्षण घेऊन  मी  तो  जोड  व्यवसाय  म्हणून  सुरवात  केली  खरी  पण  पुढच्या  एक  वर्षाचा  मेळ काही  केल्या  बसला  नाही... आमचा  दुकानाचा  निर्णय  चुकला  होता  आर्थिक  गणिते  हाताबाहेर  जात  होती. दर  महिन्याला  भाडे  भरताना  नाकीनऊ येत  होते.  निर्णय  फिरवून  आम्ही  दुसरे  दुकान  शोधले  आणि  लगोलग  बस्तान  हलवले.  नवीन  दुकानात  जागा  कमी  असली  तरी  ग्राहक  येण्यास  सुरवात  झाली  आणि  आमची  दुकानदारी  मार्गी  लागली.
महीन्या भरात  जरा  मेळ  बसतोय  हे  लक्षात  आल्यावर  आमचा  विश्वास  वाढला. अजूनही  बराच  लांबचा पल्ला गाठायचा आहे. ही  तर सुरुवात आहे. ग्राहक सेवा हा  ध्यास  धरून  वाटचाल  करायची आहे.
थोडक्यात काय तर आपले  नशीब  घडवण्याची कला ही  आपल्या पाशी असतेच  फक्त  डोळस  वृत्तीने त्या  कडे  बघायला पाहिजे. माझ्या  सारखा  जीवन प्रवास  सगळ्याचा  होईलच  असे कुठलेही गृहीतक  मी  मांडत नाहीये. माणसा  गणीक जीवन  जगण्याची उमेद  ही  वेगळी  असते  कदाचित  माझ्या  पेक्षा जास्त  टक्के  टोणपे खाल्लेली  मंडळी  समाजात  नक्कीच असतील  पण माझ्या   जीवन  गाण्याचा  प्रवास  वाचून  न जाणो  एखाद्या निराश  मनाला  उभारी  मिळेल तरच  ह्या  लेखन  प्रपंचाचा  उद्देश  सार्थकी लागेल...

Monday, May 16, 2016

सैराट झालं जी...

कालचा  "सैराट" हा  सिनेमा  पाहण्याचा  अनुभव  जरा  हटके  होता. दिग्दर्शकीय  प्रतिभा  संपूर्ण  चित्रपटभर   भरून  होती.  कारण  एक  अतिशय  निर्भीड  अशी  कथा  तितकाच  दमदार  अभिनय  आणि  जमून  आलेली  भट्टी...
प्रेम  ही  अशी एक गोष्ट आहे  जी प्रत्येक जण आपापल्या परीने  शोधत असतो. ज्याला  मिळते  तो नशीबवानच  म्हणायचा अर्थात  त्याचे  निरनिराळे  पदर  ही  आहेतच  फक्त  ते  समोरच्याला  ओळखता  यायला हवे.  प्रेम  कोणावरही  कुठेही कधीही  होऊ  शकते  त्याला  ना  जातीपातीचे  नियम  ना  कोणाची  मर्यादा.
दोन  जीवांनी ठरवलेल्या  ह्या  गोष्टीचा शेवट  कधी  गोड  तर कधी  कडू  ही  होतो.
जातीपातीच्या बंधनात  प्रेमाला  कोणी  अडवायचा  प्रयत्न  केलाच  तर ते  सैराट झालेच  म्हणून  समजा. दोन  जीवांनी एकत्र  येणे  हा  गुन्हा  कसा  होऊ  शकतो  ह्याचे  ऊत्तर  काही  केल्या  मिळत नाही. समाज, पत, रीतभात,  ह्या  सर्व गोष्टी  थोतांड  वाटायला  लागतात. मानवनिर्मित ह्या  बेगडी  सामाजिक  साखळ्या  इतक्या  हीन  पातळीवर जाऊन  पोचतात  की  मनाला  वेदना होतात आणि त्यातून निर्माण होणाऱ्या गैरसमजातून एखादी  विकृती  मग  आक्राळविक्राळ स्वरूप  धारण  करते आणि  त्या  दोन  जीवांचे आयुष्य  पणाला लागते. अजूनही  जाती  बाहेर  लग्न  केलेल्या  जोडप्यांना  समाज  बहीष्कृत करतो  त्याला  प्रोत्साहन देण्यासाठी  पंच  मंडळी  आगीत  तेल  ओतण्याचे  काम  पध्दतशीरपणे करतात. भारतात  आज  कित्येक बळी  हे  ह्या  बुरसटलेल्या  विचारांनी  घेतले  आहेत...  नव्हे जातायत.
कित्येक  समाजात  अजूनही  पंचायत राज अस्तित्वात आहे  मला पुन्हा पुन्हा  प्रश्न  पडतो  की ह्या  चांडाळाना एखाद्याचे  आयुष्य  बरबाद  करायचा  हक्क  कोणी  दिलाय. अस्तित्वात नसलेल्या  ह्या  सामाजिक  मनाच्या  भिंती  कधीच  तुटणार  नाहीत  का? की  असेच  घडत  राहणार  आणि  बाकीचे लोक  षंढा  सारखे  बघत  राहणार... ह्या  असल्या  दळभद्री  समाजात  कोणीच  मसीहा  होणार  नाही  का? माणसातला  देव  कधीच  ह्या  समाज  धुरीनांना दिसणार  नाही  का? इतकी  वर्ष  डोळ्यावर कातडी  पांघरून  असलेली  ही  विकृत  मानसिकता  कधीच  लयाला  जाणार  नाही  का? अशा  अनेक प्रश्नांची उत्तर कधी  आणि  कोण देणार...

एका  अनुत्तरीत  प्रश्नाची  उकल  देव  जाणे  हा  समाज  कधी  देणार..

सैराट मधल्या  आर्ची आणि  परश्या सारखे  अजून  कीती  बळी  ही  सामाजिक  व्यवस्था  घेणार  कोणास ठाऊक..

एक  बोलकी  प्रतिक्रीया खास  तुमच्यासाठी

सैराट...

खुप ऐकलेला आणि ह्या वर्षातला आत्तापर्यंतचा सर्वात गाजलेला मराठी चित्रपट आज पाहण्याचा योग आला, फायनली...!

एक खूपच सुंदर सिनेमा ज्यात समाजाच्या विचारधारणे पलीकडे जाऊन तरुण वर्गासाठी त्यातल्यात्यात बाल-तरुणांसाठी एक खूपच चांगली शिकवण आहे, मेसेज आहे कि

जात-पात, धर्म-पंथ ह्याच्या पलाकडे जाऊन प्रेम आहे पण प्रेम करायच्या, प्रेमाला अपने अंजामपर पोहोचवण्याआधी पोटा-पाण्याचा विचार करा. एफ.वाय. शिकून किंवा अर्धवट शिक्षण घेऊन घेतलेला असा कोणताही निर्णय तुम्हाला आयुष्यात डोसा बनवायला लावू शकतो....!

नंतर भलेही मेकॅनिक व्हाल, दोघं मिळून 40,000/- पगार कमवाल पण कांदा सोलू सोलू डोळ्यातून एवढं पाणी निघल कि जाळ-अन-धूर संगटच.....!

समाज  आणि  प्रेमवेडे ह्या  दोघांनी  खरतरं  आत्मचिंतन  करायला  हवयं...


Monday, May 9, 2016

जमलं तर बघा...

फोटोग्राफी एक अत्यंत क्रांतीकारी संकल्पना  आहे  ह्याचा प्रत्यय मला गेल्या एक वर्षापासून येत  आहे. मी ठीकठाक फोटो काढू  शकतो  ह्याची मला आधी पासूनच माहीत होते पण हा  छंद इतक्या झटकन मला पावेल याची सूतराम  कल्पना नव्हती. कॅमेरा हातात  घेऊन  फोटो काढणे म्हणजे काही वर्षांपूर्वी लग्न  आणि सभासमारंभ इथपर्यंत सिमीत असलेले  हे  क्षेत्र  आज आभाळ कवेत घ्यायला निघालेय. जो तो  कॅमेरा  हातात घेऊन फोटोग्राफर होऊ पहातोय. तसे होणे ही काही वावगे नाही पण आपल्या  छंदाचा कोणाला त्रास होत नाहीये ना हे  बघण्याची तसदी घेतलीत तर ठीक.
अनेक नवनिर्मित फोटोग्राफर जंगलात जाऊन  तिथल्या प्राण्यांचे फोटो काढताना आपण  तिथे घालत असलेल्या धुडगूसाकडे चक्क कानाडोळा करतात. आपल्या घरात कोणी येऊन दंगा  केलेला आवडेल का ? हाच नियम जंगलात  राहणाऱ्या जीवांना पण  लागू होतो हे  ह्या  धुरीनांना कोण सांगणार....
जंगलात  जाऊन  तिथल्या  वनसंपदेचा नायनाट  करण्याचा, तिथे  राहणाऱ्या जीवाचा  आपल्याला हवे तसे फोटो  काढण्याच्या हट्टापायी  आपण  केवढा मोठा गुन्हा करतोय  हे  कीत्येक सुशिक्षित, प्रशिक्षित फोटोग्राफर च्या  गावीही नसते. जंगल फोटोग्राफी चे सर्व नियम धाब्यावर बसवून हे सगळे उद्योग सर्रास चालू  असतात.  एका वर्तमान पत्रात ह्या विषयावर एक लेख  अलीकडेच माझ्या वाचनात आला  म्हणून  ह्या  विषयावर मी माझे मत मांडले  इतकेच.  जाता जाता एक निर्वाणीचा ईशारा द्यावासा  वाटतोय.... अजुनही वेळ गेलेली नाहीये, न जाणो सरकार  ह्यावर पण एक कायदा करून वन्यजीव  फोटोग्राफी ची वाटच बंद करून टाकेल...
मित्रानो, खबरदारी घ्या.. सावध ऐका  पुढल्या  हाका...
तुमच्या फोटोग्राफीच्या प्रवासाला शुभेच्छा !!!

Sunday, May 1, 2016

विचार चक्र न चुकलेलं...

विचारांची भाऊगर्दी डोक्यात झालीये.. पार पार  मंडई झालीये डोक्यात. काय करावे कळत नाही. विचारांच्या भुंग्याने डोक्याचा पोखरून  पोखरून पार फडशा पडलाय. नको ते विचार  असे होऊन गेलेय. झोपेशी काडीमोड कधीच  झालाय. डोळे सुजुन भप्प झालेत. कुठल्यातरी अनामिक भीतीने थरकाप होतोय. शरीरभर एक  विदयुल्लता निष्कारण सैरभैर पळतीये असे  भास होतायत. कशाचा कशाला पत्ता नाही तरी पण हे सगळे खेळ मनात चालू आहेत. उगाच  मनाची भ्रामक समजूत घालण्यात माझा वेळ  चाललाय...पण मन माझे काही केल्या  ऐकण्याच्या मूड मध्ये नाहीये. ऊडाणटप्पू पणा  वाढीस लागलाय. ह्या सर्वांना वेसन कशी घालू  ह्याचा ऊलघडा होत नाहिये. विचारांच्या  भाऊगर्दीत आशेचा किरण पार मिट्ट  काळोखात दडून गेलाय असे का कोणास ठाऊक सारखे  वाटते.
मानसिक खच्ची तर नाही ना झालोय... कपोलकल्पित गोष्टी माझा पाठलाग  करतायत  जणू... कपाळावर जखम असलेल्या  अश्वथामा सारखी स्थिती निर्माण झाली आहे...भळभळणारी ही जखम कधीच भरून  येणार नाही का?

मनाच्या या खेळाचा मी एकटाच शिकार  झालोय की अजूनही बरीच जण ह्या अवस्थेतून गेलीयेत/ जातायत. विषण्ण करणार्‍या अनेक  घटनांचा ताळेबंद  लागता लागत नाही. उगाच  सैरभैर अवस्थेतील मनाचा हा सारीपाट कधी  आणि कसा ठाकठीक  होइल ह्याचा ऊलघडा कधीच होणार नाही का ?

ग्रीष्म ऋतूत पानांची पानगळ होते  तसे काहीसे झाले आहे. आकाशात काळ्या कुट्ट  ढगांची  जशी भाऊगर्दी  व्हावी अगदी तसचं मळभ  दाटून आल्या ची भावना वाढीस लागली  असे वाटतेय..... बस. बस.. बस...

काय ! इतकं सगळं वाचून क्षणभर  भांबावून  गेला असाल ना !! खरतरं वर लिहीलेल्या मानसिक अवस्थेतून आपण सर्व जण जातो / गेलेलो असतो फरक इतकाच  की मी लिहून त्याला वाचा फोडायचा प्रयत्न केला बस...