Thursday, July 14, 2016

विचारांचे महादान

परवाच  माझा  वाढदिवस  साजरा केला. तसा  मी  गेले  चव्वेचाळीस  वर्षे  तो  साजरा  करतोय पण  दरवेळी  काहीतरी  हटके  करूयात  ह्या उद्देशाला  माझ्या  कडून  हरताळ  फासला  जायचा. वाढदिवस  साजरा  करायच्या  लोकांच्या  तर्‍हा  पण  ढंगबाज असतात. खरंच  का हो  ह्या  दिवसाला  इतके  महत्व  द्यायलाच  हवे  का? मला  विचाराल तर  माझा  फंडा  साधा  आहे  आपण  मरणाच्या  जवळ  जातोय  तर  हा  दिवस  का  साजरा  करावा पण बाकीच्या  लोकांकडून  आलेल्या  शुभेच्छा  नाही  म्हणता  स्वीकारणे  क्रमप्राप्त होते  आणि  आपणा  सगळ्याचा  नाईलाज  होतो असो.... तर  प्रश्न असा  पडलाय  की  मी कसा  वाढदिवस  साजरा  केला.  अर्थातच  कसा  साजरा  करावा  हा  पूर्णतः  व्यक्ती  सापेक्ष  प्रश्न  आहे. ह्या  वेळी  मला  ती  संधी मिळाली  आणि  मी  तिला  सोडले  नाही. साधारण  23 वर्षांनंतर  मला  ही  संधी  प्राप्त झाली. होय  मी  बोलतोय  ते  खरं  आहे  मला  माझ्या  वाढदिवसाला  'रक्तदान'  करता  आले. फरक  एवढाच  होता  आधी  मी  बेधडक  जाऊन  माझे  रक्त  दान  केले  होते  ह्या  खेपेस  मला  थोडी  वाट पहावी लागली. उच्च  रक्तदाबाचा  निर्वाळा  डाॅक्टरांकडून  आल्याने  मला  थोडे  थांबून  ते  देता  आले  इतकेच. समाजात  राहून  फक्त  ओरबाडत  जगणे  म्हणजे  जगणे  होऊच  शकत  नाही. आपण  जन्माला  आल्यापासून  सर्व  समाज  घटकांकडून  घेत  आलेलो  असतो  तरी  देखील  मी  हे  मिळवलेयं ही  भावना   प्रत्येकाची  इतकी  प्रबळ  का  असावी याचा  आचंबा वाटतो. अगदी  तान्हे  असल्या  पासून  हे  अवलंबित्व  आपण  सर्व  जण अनुभवत  असतो पण  बेधुंद  जगण्याच्या  नादात  ह्याचा सोयीस्कर  विसर  पडतो. देणे  घेणे  हा  तर  मानवाचा  स्थायीभाव  ह्या  शिवाय  आपला  कुठलाही  व्यवहार  होत  नाही. पण  ह्यात  फक्त  घेणे  अपेक्षित  असते  का  हो... देणे कधीतरी  केलेच  तर  आत्मिक  आनंद  तर  मिळतोच  मिळतो पण  ह्या  धरेवर जगण्याला  अर्थ ही  प्राप्त होतो.  समाजातील  कित्येक  घटकांना  आपल्या  सारख्या  सामान्य  लोकांची  गरज  असते  फरक  इतकाच की  आपण  त्यांच्या  पर्यंत  कुठल्या  माध्यमातून  पोचतो. कालच  एका  पन्नाशीतल्या मैत्रीणी  बरोबर  बोलता बोलता  तिने  सहज  जाता  जाता  सांगितले  की  आता  उपेक्षित  घटकातील  लोकांना जेवढी  जमेल  तेवढी  मदत  करणार  त्यांना  स्वबळावर  उभे  राहण्यास  वाटा  उचलणार... किती  बरे  वाटले  तिचे  हे  विचार  ऐकून आणि  जाणवले की   अरेच्चा हे पण एक  देणेच आहे... आपल्या  कडे  देण्या सारखे  खूप  असते  फक्त  डोळसपणे विचार केला तर ते  काय  आहे  ह्याचा  उलघडा होतो. बरं  हे  करावे  तर  ह्याला  खिशाला  काही  चाट  पडते  का  तर ऊत्तर  येते नाही  कारण  फक्त  पैसे  देऊन  कुठलीही  समस्या  सुटते  का तर  परत  ऊत्तर  नाही  असेच  येते.  त्यामुळे  आपल्याला  जसे  जमेल  तसे  समाजाचे  पांग आपण  प्रत्येकाने फेडायचा प्रयत्न  करण्यास  काय हरकत  आहे.   मागच्याच  आठवड्यात  आम्ही  महादान हा  कार्यक्रम  आयोजित केला होता त्याला  उत्तम  प्रतिसाद  लाभला . लोकांनी  अक्षरशः  भरभरून  दान  केले  इतके  की  आमची  झोळी  फाटायची वेळ आली.  माझ्या  मनात  एकच  विचार,  की  इतके  अडगळीचे सामान  हे  लोक आणताहेत ह्यांच्या मनात  किती अनावश्यक विचार  अडगळ  होउन  ठाण मांडून बसले असतील. काढतो  का  त्यांना  पण  असेच  बाहेर...  करू  शकतो  का  ह्या   अनावश्यक  विचारांचे  महादान... जेणेकरून  आयुष्य सुरळीत  व  सुंदर  बनेल. किती  तरी  लोकांना  विचार  हे  डोक्यात  नाही  तर  कागदावर  ठेवायचे  असतात  ह्याचे  भानच  नसते मुळात. जसे  कपडे  कपाटात,  पाणी  माठात, लोणच्याची  बरणी  फडताळात  तसेच  विचार  हे  कागदावरच  उतरले  पाहिजे  ना की  आपल्या  डोक्यात....असो.

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